Don't walk behind me; I may not lead.
Don't walk in front
of me; I may not follow.
Just walk beside me and be my friend.
- Albert Camus -
अनिल बचपन से ही क्रिकेट के माहौल में पैदा हुआ था. मुझे उसने ही बैट और बाल
सम्हालना सिखाया था. सातवीं में वह मेरे क्लास का कैप्टेन था. उसका घर राधाकान्त शरण के घर की पिछले हिस्से में था. हमारी सड़क पर शायद वही एक घर था जो खपरैल था,
जिसकी पक्की छत नहीं थी. सबसे बड़ी बात कि उसके घर के आगे ही हमलोगों के खेलने की
जमीन थी.
अनिल के पिताजी जितने डरावने , उसकी माँ उतनी ही स्वीट . वह स्कूल
इन्स्पेक्ट्रेस थी. अनिल के बड़े भाई दीपक कॉलेज में पढते थे और ज्यादातर अनिल और
उससे छोटे सुमन की अभिभावकता वही करते थे लंबी खींची हुई आवाज़ में अनिल की पुकार
लगती और अनिल एक फर्लांग के दायरे में जहाँ भी रहता दौडता हुआ घर पहुँच जाया करता.
क्रिकेट छोडकर जितनी और शरारत भरे खेल होते उसका सरगना मैं ही होता. जोखिम भरे
खेल में मेरा होना नितांत आवश्यक समझा जाता. जब किसी को चोट लगती या कहीं से
शिकायत आती तो मेरा नाम आगे कर दिया जाता. दीपक भैया इन्ही कुछ कारणों से मुझे
बदमाश प्रकाश की संज्ञा देते थे. मैं इसकी शिकायत अनिल से करता तो वह कहता कि
तुम्हारी आँखों में एक विद्रोह चमकता है जिससे तुम बड़ों के शक के घेरे में आ जाते
हो. अनिल बचपन से ही लुभावनी बाते करता था. देखने में बिलकुल बंगाली खोखा लगता :
हैंडसम .
क्रिकेट में , वह जब अपनी लंबी उँगलियों से स्पिन बाल करता तो बड़ों-बड़ों के
छक्के छूट जाया करते. हमलोग अडोस-पड़ोस में विभिन्न क्लबों से टेनिस बाल क्रिकेट
मैच खेला करते थे और ज्यादातर जीतते ही थे. गर्मी में , शाम को ,कांग्रेस मैदान
में आस-पास, स्लाइडिंग( ससरुआ और झूला) और बमबास्टिंग जिसमे बाल से एक दूसरे को मारा जाता
है, खेलते थे. कभी-कभी स्लाइडिंग पर दखल जमाने लड़कियों का झुण्ड आ जाता था. तब हमलोग
योजनाबद्ध तरीके से उन हमउम्र लड़कियों में सबसे वाचाल टूटी नाम की बंगाली लड़की की
छोटी खींच कर भाग जाते थे. इसका जिक्र करने का राज ये है की कॉलेज जाते-जाते अनिल
और टूटी में लोगों की नज़र चढ़ने लायक याराना हो गया. इतना की अनिल के बड़े भाई ने
अनिल को आगे की पढाई करने के लिए मुजफ्फरपुर भेज दिया , मामा के पास. ये सब मुझे
1959 के बाद अनिल से पत्राचार के जरिये मालूम होता रहता. 1959 अक्टूबर में हमलोग
पटना छोड़ चुके थे. तब मै दसवीं कक्षा में था.
पटना में मेरे प्रवास का एक और प्रसंग याद आता है जिसका प्रतिबिम्ब मुझे अनिल
में अंत तक देखने को मिला. उस 11 साल कि छोटी उम्र में एक दिन सुबह को स्कूल जाते
समय ,अनिल मुझे कांग्रेस मैदान के पीछे खादी ग्रामोद्योग ले गया . वहाँ
बड़े-बुजुर्ग सुबह की सैर के बाद नीरा पी रहे थे. नीरा ताड़ी के पेड़ से मिलती थी जो
धूप निखरने पर नशे वाली ताड़ी बन जाती थी. अनिल ने वह मीठी नीरा मुझे भी पिलाई और
कई दिनों तक हमलोग सुबह उसे पीने जाते रहे. खर्चा हमलोग शेयर करते. ये सब अनिल के
पिताजी के आदेश पर हो रहा था. उनका कहना था कि सूर्योदय के पहले की नीरा नशा नहीं
होती है अपितु स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छी होती है. अनिल के पिताजी नशा करते थे.
उनकी मृत्यु 1961 में ठीक अनिल के स्कूल की फ़ाइनल परीक्षा के दौरान हो गयी.
पटना छोड़ने के बाद अनिल से चिट्ठियों के द्वारा संपर्क बना रहा. 1963 में अनिल
के बड़े भाई की शादी में शरीक होने के लिए मैं पटना गया. रात को जनवासे में उसके नए
शौक के साथ रूबरू हुआ ताश का फ्लश गेम
खेलने में वह माहिर हो गया था खासकर ब्लाइंड खेलने में. सुबह होने तक उसने सबकी
जेबें ढीली कर दी थी.
1969 में मैं एम्०एससी पास कर रांची में ही नौकरी में आ गया था. अनिल पटना
युनिवेर्सिटी में बोटनी में पीएचडी कर रहा था. मेरे पिताजी का ट्रान्सफर भी पटना
हो गया था. मै जब इस बार पटना गया तो अनिल से उसके बोटनी विभाग में मिलने गया.
उससे ग्लास हाउस में भेट हुई. वह मुझे इंजीनियरिंग कॉलेज के पिछवाड़े गंगा नदी के
किनारे गाँधी घाट ले गया. वहा उसने बताया की उसकी गांजा का दम लगाते हुए हिप्पी की
पोशाक में इसी जगह की फोटो धर्मयुग ने
मुखपृष्ट पर छापा है. बाद में उसने अपने हॉस्टल के कमरे में ले जाकर वह मुखपृष्ट
भी दिखाया. दिन का खाना हमने वहीं एक होटल मे खाया. तीन बजे वह अपने हर रोज की
बैठक वाली जगह ले गया. अभी उसने इंजीनियरिंग हॉस्टल के गेट पर कदम ही रखा था कि
तीन मंजिले से कुछ लड़के उसे बुलाने लगे.
मैंने पूछा की बोटनी के रिसर्चर को ये इंजीनियरिंग के छात्र कैसे जानते हैं तो
उसने कहा की ऊपर चलो सब मालूम हो जायेगा.
उस शाम , 7 बजे तक मैं लड़कों को ताश का फ्लश खेल खेलते देखता रहा जिसमे अनिल
ज्यादातर जीत रहा था. मैं उसे खेलता छोड़ घर लौट आया. बाद में अनिल ने बताया की
उसके बड़े भाई मात्र 40 रुपये भेजते थे जबकि घर से बाहर रहकर पढ़ने में कम से कम 200 रुपये होने चाहिए और अनिल को अच्छे से रहने के लिए 500 रुपये से ज्यादा की जरूरत
पड़ती थी. यही कारण था कि वह जूआँ खेलता था. अनिल पीएचडी नहीं कर पाया. 1972 में
वह अपने मुजफ्फरपुर वाले मामा के सिनेमा हॉल ( चित्रा टाकीज) में मैनेजरी और 1975 में वह बोकारो में उन्ही के अर्चना सिनेमा को सम्हालने लगा जहाँ उनके बड़े भाई
बोकारो स्टील प्लांट में मैनेजेर और अंत में डाईरेक्टर बने.
1976 से 1987 तक फेड आउट रहा . अनिल है ,क्या कर रहा है इसकी कोई उडती खबर भी
मुझे नहीं मिलती थी. अचानक एक दिन मेरी श्रीमती ने मुझे मेरे ऑफिस
में फोन किया कि कोई अनिल वर्मा आये हुए हैं. मैं तुरत घर आया. बहुत अच्छा लगा.
अनिल ने बताया की आजकल वह सिम्प्लेक्स, कलकत्ता में मार्केटिंग मेनेजर था. उसे
मेरा पता उसके किसी सहयोगी ने दिया जो एचईसी आता-जाता रहता था. हमलोग साथ खाना खाए
. उसे एचईसी में जिस विभाग में काम था
वहाँ छोड़कर मैं वापस अपने कार्यस्थल पर आ गया.
वह स्टेशन के पास किसी होटल में ठहरा था. शाम को मैं उससे मिलने होटल गया.
वह ड्रिंक ले रहा था . मुझे भी लेने को कहा पर मैं ड्रिंक्स नहीं लेता था इसलिए
उसने जिद नहीं की. उसने बताया की इसी आदत के कारण वह मेरे घर पर नहीं ठहरा. लौटने
की तैयारी भी कुछ अलग ही थी. उसने आधी बची बकार्डी को पानी के बोतल में डाल लिया.
वह स्टेशन जल्दी आ गया क्योंकि उसका रिटर्न रिसर्वेशन नहीं था. बुकिंग काउंटर पर
उसने क्लर्क को पहचान लिया. उसे तुरत रेसेर्वेशन मिल गया.
उस दिन उसने अपने बारे में जो बताया वह इस प्रकार है. सिनेमा की मैनेजरी
सम्हालते समय उसे एक फिल्म का डिस्ट्रीब्यूट करने का काम मिल गया जिसमे उसे अच्छी
आमदनी हुई. उसी दरम्यान उसकी जितेन्द्र नारायाण अग्रवाल से गाढ़ी दोस्ती हो गयी .
मेरे पूछने पर उसने बताया की फिल्म एक्टर जीतेन्द्र का असली नाम यही है. बहुत बाद
में मुझे मालूम हुआ की जितेन्द्र का असली नाम रवि कपूर है.
बोकारो में वह बोकारो स्टील प्लांट से स्क्रैप और हार्डवेयर की चोरबाजारी के
काम में लिप्त हो गया. इस काम में उसने लाखों कमाए और लाखों उडाये. प्लांट के कुछ
आला ऑफिसर से उसकी सांठ-गाँठ थी जो उसे चोरबाजारी के काम में मदद करते थे. उन लोगों
कि खिदमत के लिए उसके इशारे पर किसी भी ट्रेन में फर्स्ट क्लास कूपे रिसर्व हो
जाता था जिसपर प्लांट के ऑफिसर्स मजे उडाया करते थे .रांची स्टेशन का वह क्लर्क
उसकी मदद करनेवालों में से एक था.
1992 में मुझे कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग लेने कलकत्ता भेजा गया. एक साल की
ट्रेनिंग थी. वहाँ अनिल के पार्क स्ट्रीट स्थित सिम्प्लेक्स के हेड ऑफिस में उससे
मुलाकात हुई. उसके बाद एक साल के कलकत्ता प्रवास में मैं दो बार उसके बेहाला वाले
मकान में गया. शुक्रवार की शाम जाता और सोमवार की सुबह लौट आता अपने लेक रोड वाले
हॉस्टल.
अनिल की पत्नी बेहद सुशील और सुन्दर थी पर थोड़ा ज्यादा ही मोटी थी.उन्हें
थाइरोइड की शिकायत थी. जब अनिल मुझे बेहाला
की गलियों में घुमाने ले गया तो उसने बताया की ज्यादा शराब पीने की वजह उसकी पत्नी
का ठंडापन है. यही नहीं , उसने मुझे अपने गर्ल फ्रेंड से भी भेंट कराया जिससे
नजदीकी रखने के लिए ही उसने बेहाला चुना.
उसकी बंगाली गर्ल फ्रेंड लड़का ज्यादा लग रही थी. गाली उसके मुंह पर रहती थी.
मेरा परिचय उसने पुलिसवाला कहकर किया जिससे वह अपशब्द कम बोले. उस लड़की के साथ
एक-दो और लडकियां रहती थी. सभी लड़कियां पेशेवर लगती थीं। एक बहुत सुन्दर 5 साल का लड़का खेलते दिखा . बाहर आने पर
अनिल ने बताया कि ये घर एक बंगाली महाशय का है जिसकी ये रखैल है. वह कभी-कभी ही
इधर आता है. दूसरी बार जब मैं अनिल के घर
आया तब वह फिर मुझे लेकर उस लड़की के घर पहुंचा.पर इस बार बाहर से ही लौटना पड़ा.
खुले दरवाज़े से बंगाली महाशय दिख रहे थे. बिलकुल अमृत्य सेन.
घर लौटकर, अनिल ने शराब कि बोतल निकाली और खूब पी. मुझे भी पीने की जिद करने
लगा. रोने और आत्महत्या कि दुहाई देने लगा. अंत में,मेरी गोद में सर रखकर सो गया.
सुबह लौटते वक्त, उसने कहा कि अब वह कलकत्ता छोड़ देगा. वह अब बसंत के साथ
पार्टनरशिप में काम करेगा. बसंत हम दोनों का दोस्त था पर अनिल से ज्यादा. वे दोनों रिश्ते में भी थे। बसंत
अमेरिका में बस गया था. मुंबई में अपना कारोबार फैलाना चाहता था. जो दवाइयाँ
अमेरिका में बैन हो जाती थी उसका बहुत अच्छा बाज़ार भारत में था..
अनिल से अंतिम मुलाक़ात 2000 में कारखाने के अंदर हुई. उस समय मैं आद्योगिक
सुरक्षा और पर्यावरण प्रबंधन का चीफ बन गया था. अनिल ने मुझसे एक बहुत ही गलत काम में
साथ देने को कहा. किसी बड़े काम में उसकी कंपनी सिम्प्लेक्स और एचईसी दोनों ने
टेंडर भरे थे. अनिल एचईसी का बिड रेट जानना चाहता था.
उसके बाद अनिल 2001 में अपने बड़े भाई के पास चला गया. वे उस समय विशाखापट्नम
स्टील प्लांट के चेयरमैन बन गए थे. वहाँ उसे किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में नौकरी मिल गयी थी. 2003 में मालूम पड़ा कि वह मुंबई में किसी फर्म में था.
2015 में , बसंत से मेरा संपर्क फेसबुक में हुआ. whatsapp वॉइस काल पर उसने अनिल के बारे में जो बताया वह बहुत दुखदायी था।
शराब और जूएँ की लत के चलते उसकी नौकरी छूट गई। वह दादर,मुंबई में किसी माफिया डेन मे जूएँ का अड्डा चलाने लगा। एक दिन उसकी एक बड़ी चोरी पकड़ी गई। अनिल किसी तरह तो भाग गया पर उसके जान पर हरदम खतरा मँडराता रहता था। वह पटना आकर अपनी ससुराल में रहने लग गया । उसकी आदत उसे खस्ताहाल बनाए रखती थी। अपने पटना प्रवास के दौरान बसंत उससे मिलना चाहता था। लोगों ने उसे मना कर दिया।