Saturday, May 19, 2012

बसंत : 1957


हम छोटों में अगर कोई सबसे शर्मिला और भावुक था तो वह बसंत ही था. हमलोग जब भी उसे बुलाने या मिलने घर जाते तो वह माँ से सटा मिलता. कभी-कभी तो हमलोग सीधे उसे उसकी माँ के आँचल में खोजते. वह इंग्लिश मीडियम से हमारे क्लास में आया था पर अंग्रेजी बोलने में भी शर्माता था.
घर में उसे कोई भी अच्छी चीज़ खाने को मिलती तो हमलोगों के पास शेयर करने दौड़ा चला आता. किसी को अपनी बाल दे देता किसी को अपनी नयी कलम.
उसका जन्म बसंत पंचमी के दिन हुआ था. सबसे शानदार उसका जन्मदिन मनता . हमलोग सभी उस दिन शाम को उसकी माँ का बनाया हुआ स्वादिष्ट पकवान और बाजार से लायी गयी चुनिन्दा मिठाइयां खाते.
फुटबाल के खेल में उसको गोलकीपर बनना प्रिय था उसपर डाईव मारकर बाल पकड़ना . चोट लगने के डर से वह दूर से आती हुई गेंद को देखकर पहले से लेट जाता. हमलोगों का हँसते-हँसते बुरा हाल हो जाता. इसी तरह वह क्रिकेट की तेज आती गेंद को लपकने के बजाय उसके पीछे-पीछे भागता तबतक जबतक की गेंद बाउंड्री के बाहर न चली जाए. अगर उस दिन हमलोगों के भाईजी शंकर कप्तानी कर रहे होते तो हल्ले-गुल्ले का माहौल रुके नहीं रुकता.
एक बार हमलोग जब पास के पार्क में जो कोंग्रेस मैदान के नाम से जाना जाता था , आस-पास खेल रहे थे तो वह छिपने के लिए एक सकरे गड्ढे में कूद गया जहाँ पहले से एक भयानक काला कुत्ता बैठा था. उस कुत्ते ने बसंत की जांघ पर अच्छे से दांत गड़ाये . मुझे याद है जब हमलोग उसको टांगकर उसके घर ला रहे थे तो जख्म से काला खून बह रहा था. सुबह जब वह कार से इंजेक्शन लेने जाता तो हमलोग अपने-अपने घर से झांका करते. उसे पेट में कुल चौदह मोटे इंजेक्शन लगे थे.
1967 में जब हमलोग रांची के एच०ई०सी कालोनी में रहते थे तब बसंत भी एक महीने के लिए उसी कालोनी में अपनी दीदी के पास गर्मी की छुट्टी में आया था. तब हम दोनों गोपी सिंह भदोरिया के ६ किलोमीटर दूर धुर्वा में स्थित देल्ही कन्टीन में मशहूर जलेबियां खाने जाते.
1968 में बसंत अमेरिका चला गया. उससे मेरी अंतिम मुलाकात 1970 के आस-पास हुई जब वह अपनी छोटी बहन की शादी में पटना आया था. 5-10 का कद, वजन 70 किलो और सर पर हबशियों जैसे बाल; खासकर मैं तो उसकी पर्सनालिटी से बहुत प्रभावित था. हमलोगों की औसतन उम्र तब 23 वर्ष, ऊंचाई लगभग 5-6 और वजन 50 किलो हुआ करती थी. हमलोग यानी अनिल, गोपाल और मैं.
  2001 में अनिल ने मुझे बताया कि बसंत इंडिया में दवा मार्केटिंग का काम उसके साथ मिलकर करना चाहता था.
2011 में अचानक मैंने बसंत को फेसबुक में खोज निकाला. उसने अपने परिवार के बारे में लिखा और मुझसे मेरे बारे में पूछा. मैंने अपनी सारी उपलब्धियां गिना दीं और उससे अनिल का पता-ठिकाना पूछा. उसके बाद उसने पूरी तरह चुप्पी साध ली. शर्मीला तो वह बचपन से था. कभी-कभी वह फेसबुक में मेरे डाले गए विचार और फोटो  पर “ लाइक” की मुहर लगा देता है. मैं भी उसको उसके जन्मदिन पर बधाई देना नहीं भूलता हूँ.  शेक्सपीयर ने ठीक ही कहा है, “ What is past is prologue.”

पाठक: 1963


Friendship... is not something you learn in school. But if you haven't learned the meaning of friendship, you really haven't learned anything. :Muhammad Ali
The secret to friendship is being a good listener
कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम एक समय की खिची हुई एलास्टिक डोरे पर स्थित हों. डोर थोड़ा ज्यादा खिची तो सब कुछ स्लो मोशन में होता महसूस होता है और डोर संकुचित हुई तो वर्षों की कहानी कुछ दिनों में सिमट सी जाती है. देखिये, मैंने एक वाक्य में भविष्य में चार आयामी ( स्पेस-टाइम) अटॉमिक थ्योरी की जगह बहुआयामी स्ट्रिंग थ्योरी की प्रमुख परिकल्पना बता दी.  आज लगता है जैसे 1961 से 1966 का समय सिमट कर कुछ दिनों का हो गया है. एक कैनवास में दूसरा कैनवास होच-पोच सा हो गया है. कौन सी घटना पहले  हुई और कौन बाद में यह ज्यादा मायने नहीं रखती.
1963 में मैंने अपना ग्रेजुएशन का पहला साल रांची कॉलेज के नए भवन में आरम्भ किया. एक-एक क्लास रूम 200 लड़कों को बिठा सकता था. गैलेरीनुमा हॉल में मुझे दाहिनी ओर की तीसरी बेंच बहुत भाती थी. पर कुछ लड़कों के पहले बैठने की वजह से ज्यादातर वह बेंच मेरे पहुँचने के पहले भर जाया करती थी. स्पर्धा में मेरी तरह 5 फीट 1 इंच के दो लड़के और भी थे.
एक दिन मैंने ज्यादा फूर्ती दिखाई और उनमे से एक को धकियाते हुए एक बची जगह पर बैठ गया. उस बेचारे को मेरे पीछे वाली सीट पर बैठना पड़ा. उस दिन जब घर आकर कपड़े बदलने लगा तो देखा कि मेरी पीठ पर स्याही की कुछ बूँदें थी. मैं समझ गया कि ये करतूत उसी पीछे बैठे लड़के की होगी.
अगले दिन मैं सोच-समझ कर उस लड़के से एक पल पीछे रहा. वह लड़का तेज़ी से तीसरी बेंच पर बैठ कर मुझे मुस्कुराते हुए पीछे जाता देखता रहा. मैं उसके पीछे वाली सीट पर बैठ गया. मैं उस दिन दो पेन लाया था.
दूसरे दिन मेरे मित्र लक्ष्मी ने मुझे बताया कि उस लड़के की शर्ट और बनियान दोनों स्याही से पूरी तरह रंग गयी थी और उसे घर में काफी सुनना पड़ा था. साथ ही उसने यह भी बताया कि वह प्रोफेसर पाठक का लड़का है. पाठक सर, सान्याल-भागीरथ सिंह-पाठक त्रिभुज के सिरमौर थे जिनके बूते 2000 लड़कों का कॉलेज शांति से चलता था. उनमे से कोई भी कारिडोर में निकल पड़ता तो पूरी लम्बाई में सन्नाटा छा जाता. मैं किसी भी तरह उस लड़के से माफ़ी मांग कर दोस्ती करना चाहता था.  लौटते समय वह कॉलेज के बाहर एक पेड़ के पीछे दिखाई दिया. मेरे वहाँ पहुँचने के पहले ही उसने मुझसे हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया. उसका नाम शिव कुमार पाठक था. उसके साथ ही मेरी दोस्ती उसके साथ रहने वाले लड़के से भी हो गयी. संयोग से उस लड़के का नाम भी प्रकाश था. प्रकाश कुमार.
उसके बाद के तीन साल हमलोगों ने ज्यादातर साथ-साथ बिताए. साथ पढ़ने के हमलोग का होटल और फिल्म देखने का प्रोग्राम भी बनता. कॉलेज के तरफ से हमलोग नेतरहाट भी गए. पहली जनवरी को तो हमलोग जोन्हा फ़ाल्स ही जाते. ब्रेड, जैम, कंडेंस्ड मिल्क का डिब्बा, बिस्कुट, चाय-काफी बनाने का सामान और एक कैमरा. एक पैसेंजर ट्रेन थी जो साढ़े नौ बजे सुबह रांची से खुलती थी , एक घंटे में गौतम धारा स्टेशन उतारती थी जहाँ से जोन्हा फ़ाल्स ३ किलोमीटर दूर था और शाम को सात बजते-बजते रांची पहुंचा देती थी.
जब कभी हम तीनो या दोनों साइकिल पर कहीं जा रहे होते तब पाठक हमेंशा एक ही गाना गुनगुनाया करता ,” है अपना दिल तो आवारा...”. जब कभी हमलोग कहीं पहाड़ी पर बैठ कर सूर्यास्त देख रहे होते तो उसकी जुबान पर ये गाना होता,”कभी खुद पे कभी हालात पर रोना आया”.  हटिया रेलवे प्लेटफार्म हमलोग उस समय इक्का-दुक्का आने वाली ट्रेन देखने के साथ-साथ छिपकर सिगरेट भी पीने के लिए जाते. उस समय उसके जुबान पर ये गाना होता,”मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया” मतलब ये कि उसे विश्वास सा  हो गया था कि वह देवानंद हो गया है.
हमलोगों का बचपना अभी गया नहीं था और इस बचपने को हमारे प्रोफेसर और ज्यादा उम्र के सहपाठी मजा भी लेते और झेलते भी. ये दोस्ती , दोस्ती की पिटी-पिटाई लाइन पर थी. पर हमलोगों को तीन-तीन माताओं का प्यार भी मिला उन दिनों.
पाठक की माँ मुझे बहुत सरल और भोली लगती थीं. फिट-फिट गोरी, थोड़ी नाटी, बहुत सुन्दर और आन्चल हमेशा सर पर. सुबह का कॉलेज था. एक दिन कॉलेज में देर हो गई. भूख से हम तीनों का बुरा हाल था. घर लौटने के रास्ते में पाठक का घर पड़ता था या यों कहे की उसका घर कॉलेज से एक मील दूर था पर मेरा घर सात मील दूर. मैं ज्यादातर सिटी बस से आता-जाता था. उस दिन पाठक जिद करके घर ले गया. पाठक माँ प्रकाश कुमार को पहले से जानती थी. मुझे पहले बार देखा था. उनके पूछने के पहले ही पाठक ने एक सांस में बता दिया की मेरा नाम प्रकाश है, राजपूत हूँ और पिताजी मजिस्ट्रेट हैं. अब पाठक माँ ने क्या कहा उस पर गौर कीजिये .
“ देखो बाबू लोग ! ई घर ब्राह्मण का है. बुरा मानने का कोई बात नहीं है. खाना खाकर बर्तन बाहर जाकर धोकर ले आना. जमीन पर जो भी झूठा गिरेगा उसे उठा कर पानी से जमीन पोछ देना. सबलोग हाथ-पांव धोकर पूरब मुंह करके बैठ जाओ. “ और उसके बाद हमलोगों को अलग-अलग थाली में खाना देकर दरवाजे का ओट लेकर खड़ीं हो गयी. जैसे ही पहला कौर मुंह में गया, बोलीं,” हमलोगों के घर में लहसुन-प्याज नहीं पड़ता है. ऐसा ही सादा खाना बनता है. भोला (पाठक के घर का नाम ) को बैगन अच्छा नहीं लगता है , डरता है की बैगन की तरह काले हो जायंगे इसीलिए उसको बैगन नहीं दियें हैं.”
खाने में बहुत स्वाद था उसपर हमलोग सुबह छ बजे घर से निकले हुए. उस दिन जरूर पाठक के घर में दोबारा खाना बना होगा. ऐसा मैंने पाठक को कहा . जवाब मिला की उसके घर में हमेशा एक-दो मेहमान आते रहते हैं इसलिए माँ ज्यादा खाना बना कर रखती है. सप्ताह में एक-दो बार तो हमलोग अवश्य पाठक के घर खाना खाते. बाद में पाठक माँ हमलोगों की पसंद  जानकर वैसा ही कुछ बना कर रखतीं.
एक साल बाद जब हम तीनो दोस्त नेतरहाट दो दिनों के लिए गए तब पाठक माँ ने मुझे दो रूपये दिए और कहा की भोला के हाथ में देंगे तो फिजूलखर्ची कर देगा. बाद में लौटने पर, मैंने वो रूपये पाठक माँ को लौटा दिया. ये बात पाठक को शायद नहीं मालूम है.
प्रकाश की माँ एकदम पुलिस इंस्पेक्टर की श्रीमती थी. उसके घर हमलोग जब भी जाते तो जोइंट स्टडी का बहाना करके. जाते ही सवालों की झड़ी लग जाती. “ इतना देर कहाँ थे ? विनय तो एक घंटे पहले लौट आया? साथ में कौन है? चौकड़ी में बस विनय का कमी रह गया है, इत्यादि. मजेदार बात ये की खाना खाना उस घर के कानून में से एक था, पर एक थाली में. प्रकाश के घर ज्यादातर दो-तीन घंटे बिताकर चार बजे के बाद हमलोग लौटते. एक तो बाहर का माहौल ठंडा जाता , दूसरे हमलोगों के पिताजी लोगों के ऑफिस/कॉलेज से लौटने का वक्त हो जाता.
मेरे पिताजी बहुत गुस्सेल प्रकृति के थे. मेरा घर दूर भी पड़ता था. इसलिए पाठक कभी अकेले या कभी प्रकाश के साथ महीने- दो महीने में ही आता. मेरी माँ से उनलोगों की मुलाकात उस दरम्यान एक-दो बार ही हुई होगी. हमलोगों के 12 जनों के परिवार में ऐसे भी माँ को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती. पाठक को मेरी माँ का बनाया हुआ आलू का पराठा अच्छा लगता जो मैं कभी-कभी ले जाया करता और कॉलेज कैंटीन में बैठ कर अकेले या दोस्तों के साथ खाया करता. पाठक को माँ का बनाया हुआ बंधगोभी की सब्जी इसलिए बहुत अच्छी लगती क्योंकि उसमे गोटा लहसुन पड़ा होता. मेरे पिताजी के साये से भी वे लोग डरते और माँ से सहमते. मेरे दोस्तों पर सुभद्रा कुमारी चौहान का बहुत मान था और वह माँ की मौसी थीं.
पाठक और मैंने फिजिक्स में मास्टर किया एवं प्रकाश ने सिविल एन्जिन्यिरिंग.
पाठक स्वादिष्ट खाने का शौक़ीन है खासकर मिठाईयों का. 1995 के आस-पास, मैं ओफिस के किसी काम से पटना आया था. उससे मिलने शेखपुरा में उसके ऑफिस गया. लौटते वक्त वह चार मील दूर पैदल आया और रास्ते भर रुक-रुक कर तरह-तरह के व्यंजन खाता-खिलाता रहा. साथ में घर के लिए खाजा और तिलकुट लेता आया. उसका ये शौक अभीतक बरकरार है.
पाठक बहुत बोलता है पर अच्छा बोलता है. इसकी एक मिसाल भुलाये नहीं भूलती. दिसम्बर,2007 में हमलोग पटना में अजय भैया के बड़े लड़के अपु की शादी में जमा हुए थे. रात भर की जगान के बाद दूसरे दिन झपकी लेने का मौका नहीं मिल रहा था. हॉल में करीब १० लोग बैठे बतिया रहे थी. दिन के तीन बज रहे थे. उस समय तक बोलने की बागडोर पाठक ने सम्हाल ली थी. वह बोल रहा था और सभी एकाग्र सुन रहे थे. शायद बात ट्रेनों के आधुनिककरण पर थी. झपकी के बीच मैं भी सर हिला रहा था. मुझे नीद आ गयी. किसी ने आकर जगाया और कहा की साढ़े सात बज रहे हैं , ट्रेन छूट जायेगी. मैंने देखा , कोई बीस से ज्यादा लोग बैठे पाठक का लालू-नितीश के समीकरण पर बड़े ध्यान से व्याख्यान सुन रहे थे.
काश, उसने ऐसी ही अपने धैर्य पर लगाम कसी होती.
प्रकाश से अंतिम मुलाकात 1967 में हुई थी.

लक्ष्मी : 1961


Friends are born, not made: .Henry B. Adams

1961 फरवरी में मेरे स्कूल फाईनल की परीक्षा खत्म होते ही मेरे पिताजी का तबादला झुमरी तिलैया जैसे छोटे पर यादगार कस्बे से बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी रांची हो गया. मेरे लिए ये बड़ी अच्छी बात थी. यहाँ कॉलेज थे. रिजल्ट निकलते ही मैं और मेरे बड़े भाई कॉलेजों का चक्कर लगाने लगे. हमलोग रांची से पास नहीं हुए थे और नंबर भी कम थे अतः रांची कॉलेज में ही एडमिशन की संभावना बनी. मैं अभी भी हाफ पैंट पहनता था. जब हमलोग कॉलेज की सीढियां उतर रहे थे तभी एक सीधा-साधा सा खूबसूरत लड़का सीढियों के नीचे मुस्कुराता सा दिखा. हमलोगों की एक ही समस्या थी अतः जान-पहचान होते देर न लगी. लक्ष्मी नारायण मिश्र नाम था और वह डाल्टेनगंज (पलामू जिला) से आया था. पलामू के लोग बहुत सीधे होते हैं. लक्ष्मी भी कुर्ते-पयज़ामे पर मोज़े के साथ जूते पहना हुआ था. हमारे बड़े भाई के ओंठों पर मुस्कराहट की रेखाएं लक्ष्मी भांप गया. उसने तुरत कहा, “ लेकिन मैंने स्कूल रांची से ही किया है और मेरे पिताजी जेल के मुलाजिम हैं.”
लक्ष्मी को उस समय मेरे बड़े भाई ज्यादा इम्प्रेस्सिव लगे और वह उन्ही के साथ ज्यादा बाते करता. मेरी उम्र के साथ मेरा कद भी औसतन कम था. कुल 4 फीट 10 इंच. साथ में हाफ पैंट. सोने पै सुहागा ये कि सबसे आप-आप संबोधित कर बातें करना.
एक साल देखते-देखते बीत गए. कॉलेज का नया कैम्पस बन गया था. अगला सत्र वहीँ आरम्भ हुआ. इस बार लक्ष्मी से भेंट 15-20 दिनों बाद हुई. हमलोग ऑडिटोरियम हॉल के बरामदे पर खड़े थे. मैंने फुलपैंट पहनना शुरू कर दिया था. लक्ष्मी भी  फुलपैंट-शर्ट पहने था. हमलोग बात ही कर रहे थे कि इसी बीच दूर से एक लड़का आता दिखा. सिल्क का कुरता जिसकी बांहें रस्सी की तरह मोड़कर ऊपर तक चढ़ाई हुई थीं. सफ़ेद पायजामा जो काले जूते से 2 इंच ऊपर था. जूते और पायजामे के बीच के 2 इंच के गैप में लाल मोजा शोभा बढ़ा रहा था. सर पर खूब सारा तेल थोपे हुए.
लक्ष्मी ने उस लड़के को देखते ही कहा कि ये ज़रूर पलामुआ होगा. जैसे ही वह लड़का पास आया , लक्ष्मी ने उससे पूछा,” क्या बबुआ, कहाँ के रहने वाले हो ?” उस लड़के ने झुंझलाहट से भर कर जवाब दिया,” हाँ ! हम पलमुआ है ! क्या कर लोगे ?” हमलोगों का हँसते हुए बुरा हाल हो गया.
लौटते वक्त मैं लक्ष्मी के बारे में सोच रहा था. जिसमे खुदपर हँसने की हैसियत हो वह दूसरों को कितना हंसाता होगा.
धीमे-धीमे लक्ष्मी से मेरी नजदीकी बढती गयी इतनी की मेरे बड़े भाई को कहना पड़ा कि लक्ष्मी दोनों में से किसी एक को अपना दोस्त चुन ले. उसके बाद और अबतक हमारी दोस्ती किन-किन पड़ाव से गुजरी उसको समेटने के लिए पन्ने कम पड़ जायेंगे. लक्ष्मी से तो भूलकर नहीं पूछना . उसका जवाब होगा ...तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी हैरान हूँ मै !
50 साल हो गए. गोकि दोस्ती स्वार्थ से परे होती है पर क्या मैं उसपर खरा उतरता हूँ . मुझे जब भी मूड अच्छा करना होता है लक्ष्मी से मिल लेता हूँ या उससे फोन पर और अब तो स्काइप पर विडियो चैट कर लेता हूँ. 
सोचता एक है कांटैक्ट दूसरा करता है.

अनिल: 1956


Don't walk behind me; I may not lead. 
Don't walk in front of me; I may not follow. 

Just walk beside me and be my friend. 

- Albert Camus -
अनिल बचपन से ही क्रिकेट के माहौल में पैदा हुआ था. मुझे उसने ही बैट और बाल सम्हालना सिखाया था. सातवीं में वह मेरे क्लास का कैप्टेन था. उसका घर राधाकान्त शरण के घर की पिछले हिस्से में था. हमारी सड़क पर शायद वही एक घर था जो खपरैल था, जिसकी पक्की छत नहीं थी. सबसे बड़ी बात कि उसके घर के आगे ही हमलोगों के खेलने की जमीन थी.
अनिल के पिताजी जितने डरावने , उसकी माँ उतनी ही स्वीट . वह स्कूल इन्स्पेक्ट्रेस थी. अनिल के बड़े भाई दीपक कॉलेज में पढते थे और ज्यादातर अनिल और उससे छोटे सुमन की अभिभावकता वही करते थे लंबी खींची हुई आवाज़ में अनिल की पुकार लगती और अनिल एक फर्लांग के दायरे में जहाँ भी रहता दौडता हुआ घर पहुँच जाया करता.
क्रिकेट छोडकर जितनी और शरारत भरे खेल होते उसका सरगना मैं ही होता. जोखिम भरे खेल में मेरा होना नितांत आवश्यक समझा जाता. जब किसी को चोट लगती या कहीं से शिकायत आती तो मेरा नाम आगे कर दिया जाता. दीपक भैया इन्ही कुछ कारणों से मुझे बदमाश प्रकाश की संज्ञा देते थे. मैं इसकी शिकायत अनिल से करता तो वह कहता कि तुम्हारी आँखों में एक विद्रोह चमकता है जिससे तुम बड़ों के शक के घेरे में आ जाते हो. अनिल बचपन से ही लुभावनी बाते करता था. देखने में बिलकुल बंगाली खोखा लगता : हैंडसम .
क्रिकेट में , वह जब अपनी लंबी उँगलियों से स्पिन बाल करता तो बड़ों-बड़ों के छक्के छूट जाया करते. हमलोग अडोस-पड़ोस में विभिन्न क्लबों से टेनिस बाल क्रिकेट मैच खेला करते थे और ज्यादातर जीतते ही थे. गर्मी में , शाम को ,कांग्रेस मैदान में आस-पास, स्लाइडिंग( ससरुआ और झूला) और बमबास्टिंग जिसमे बाल से एक दूसरे को मारा जाता है, खेलते थे. कभी-कभी स्लाइडिंग पर दखल जमाने लड़कियों का झुण्ड आ जाता था. तब हमलोग योजनाबद्ध तरीके से उन हमउम्र लड़कियों में सबसे वाचाल टूटी नाम की बंगाली लड़की की छोटी खींच कर भाग जाते थे. इसका जिक्र करने का राज ये है की कॉलेज जाते-जाते अनिल और टूटी में लोगों की नज़र चढ़ने लायक याराना हो गया. इतना की अनिल के बड़े भाई ने अनिल को आगे की पढाई करने के लिए मुजफ्फरपुर भेज दिया , मामा के पास. ये सब मुझे 1959 के बाद अनिल से पत्राचार के जरिये मालूम होता रहता. 1959 अक्टूबर में हमलोग पटना छोड़ चुके थे. तब मै दसवीं कक्षा में था.
पटना में मेरे प्रवास का एक और प्रसंग याद आता है जिसका प्रतिबिम्ब मुझे अनिल में अंत तक देखने को मिला. उस 11 साल कि छोटी उम्र में एक दिन सुबह को स्कूल जाते समय ,अनिल मुझे कांग्रेस मैदान के पीछे खादी ग्रामोद्योग ले गया . वहाँ बड़े-बुजुर्ग सुबह की सैर के बाद नीरा पी रहे थे. नीरा ताड़ी के पेड़ से मिलती थी जो धूप निखरने पर नशे वाली ताड़ी बन जाती थी. अनिल ने वह मीठी नीरा मुझे भी पिलाई और कई दिनों तक हमलोग सुबह उसे पीने जाते रहे. खर्चा हमलोग शेयर करते. ये सब अनिल के पिताजी के आदेश पर हो रहा था. उनका कहना था कि सूर्योदय के पहले की नीरा नशा नहीं होती है अपितु स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छी होती है. अनिल के पिताजी नशा करते थे. उनकी मृत्यु 1961 में ठीक अनिल के स्कूल की फ़ाइनल परीक्षा के दौरान हो गयी.
पटना छोड़ने के बाद अनिल से चिट्ठियों के द्वारा संपर्क बना रहा. 1963 में अनिल के बड़े भाई की शादी में शरीक होने के लिए मैं पटना गया. रात को जनवासे में उसके नए शौक के साथ रूबरू हुआ  ताश का फ्लश गेम खेलने में वह माहिर हो गया था खासकर ब्लाइंड खेलने में. सुबह होने तक उसने सबकी जेबें ढीली  कर दी थी.
1969 में मैं एम्०एससी पास कर रांची में ही नौकरी में आ गया था. अनिल पटना युनिवेर्सिटी में बोटनी में पीएचडी कर रहा था. मेरे पिताजी का ट्रान्सफर भी पटना हो गया था. मै जब इस बार पटना गया तो अनिल से उसके बोटनी विभाग में मिलने गया. उससे ग्लास हाउस में भेट हुई. वह मुझे इंजीनियरिंग कॉलेज के पिछवाड़े गंगा नदी के किनारे गाँधी घाट ले गया. वहा उसने बताया की उसकी गांजा का दम लगाते हुए हिप्पी की पोशाक में इसी जगह की फोटो  धर्मयुग ने मुखपृष्ट पर छापा है. बाद में उसने अपने हॉस्टल के कमरे में ले जाकर वह मुखपृष्ट भी दिखाया. दिन का खाना हमने वहीं एक होटल मे खाया. तीन बजे वह अपने हर रोज की बैठक वाली जगह ले गया. अभी उसने इंजीनियरिंग हॉस्टल के गेट पर कदम ही रखा था कि तीन  मंजिले से कुछ लड़के उसे बुलाने लगे. मैंने पूछा की बोटनी के रिसर्चर को ये इंजीनियरिंग के छात्र कैसे जानते हैं तो उसने कहा की ऊपर चलो सब मालूम हो जायेगा.
उस शाम , 7 बजे तक मैं लड़कों को ताश का फ्लश खेल खेलते देखता रहा जिसमे अनिल ज्यादातर जीत रहा था. मैं उसे खेलता छोड़ घर लौट आया. बाद में अनिल ने बताया की उसके बड़े भाई मात्र 40 रुपये भेजते थे जबकि घर से बाहर रहकर पढ़ने में कम से कम 200 रुपये होने चाहिए और अनिल को अच्छे से रहने के लिए 500 रुपये से ज्यादा की जरूरत पड़ती थी. यही कारण था कि वह जूआँ खेलता था. अनिल पीएचडी नहीं कर पाया. 1972 में वह अपने मुजफ्फरपुर वाले मामा के सिनेमा हॉल ( चित्रा टाकीज) में मैनेजरी और 1975 में वह बोकारो में उन्ही के अर्चना सिनेमा को सम्हालने लगा जहाँ उनके बड़े भाई बोकारो स्टील प्लांट में मैनेजेर और अंत में डाईरेक्टर बने.
1976 से 1987 तक फेड आउट रहा . अनिल है ,क्या कर रहा है इसकी कोई उडती खबर भी मुझे नहीं मिलती थी. अचानक एक दिन मेरी श्रीमती ने मुझे मेरे ऑफिस में फोन किया कि कोई अनिल वर्मा आये हुए हैं. मैं तुरत घर आया. बहुत अच्छा लगा.
अनिल ने बताया की आजकल वह सिम्प्लेक्स, कलकत्ता में मार्केटिंग मेनेजर था. उसे मेरा पता उसके किसी सहयोगी ने दिया जो एचईसी आता-जाता रहता था. हमलोग साथ खाना खाए . उसे एचईसी  में जिस विभाग में काम था वहाँ छोड़कर मैं वापस अपने कार्यस्थल पर आ गया.  वह स्टेशन के पास किसी होटल में ठहरा था. शाम को मैं उससे मिलने होटल गया. वह ड्रिंक ले रहा था . मुझे भी लेने को कहा पर मैं ड्रिंक्स नहीं लेता था इसलिए उसने जिद नहीं की. उसने बताया की इसी आदत के कारण वह मेरे घर पर नहीं ठहरा. लौटने की तैयारी भी कुछ अलग ही थी. उसने आधी बची बकार्डी को पानी के बोतल में डाल लिया. वह स्टेशन जल्दी आ गया क्योंकि उसका रिटर्न रिसर्वेशन नहीं था. बुकिंग काउंटर पर उसने क्लर्क को पहचान लिया. उसे तुरत रेसेर्वेशन मिल गया.
उस दिन उसने अपने बारे में जो बताया वह इस प्रकार है. सिनेमा की मैनेजरी सम्हालते समय उसे एक फिल्म का डिस्ट्रीब्यूट करने का काम मिल गया जिसमे उसे अच्छी आमदनी हुई. उसी दरम्यान उसकी जितेन्द्र नारायाण अग्रवाल से गाढ़ी दोस्ती हो गयी . मेरे पूछने पर उसने बताया की फिल्म एक्टर जीतेन्द्र का असली नाम यही है. बहुत बाद में मुझे मालूम हुआ की जितेन्द्र का असली नाम रवि कपूर है.
बोकारो में वह बोकारो स्टील प्लांट से स्क्रैप और हार्डवेयर की चोरबाजारी के काम में लिप्त हो गया. इस काम में उसने लाखों कमाए और लाखों उडाये. प्लांट के कुछ आला ऑफिसर से उसकी सांठ-गाँठ थी जो उसे चोरबाजारी के काम में मदद करते थे. उन लोगों कि खिदमत के लिए उसके इशारे पर किसी भी ट्रेन में फर्स्ट क्लास कूपे रिसर्व हो जाता था जिसपर प्लांट के ऑफिसर्स मजे उडाया करते थे .रांची स्टेशन का वह क्लर्क उसकी मदद करनेवालों में से एक था.
1992 में मुझे कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग लेने कलकत्ता भेजा गया. एक साल की ट्रेनिंग थी. वहाँ अनिल के पार्क स्ट्रीट स्थित सिम्प्लेक्स के हेड ऑफिस में उससे मुलाकात हुई. उसके बाद एक साल के कलकत्ता प्रवास में मैं दो बार उसके बेहाला वाले मकान में गया. शुक्रवार की शाम जाता और सोमवार की सुबह लौट आता अपने लेक रोड वाले हॉस्टल.
अनिल की पत्नी बेहद सुशील और सुन्दर थी पर थोड़ा ज्यादा ही मोटी थी.उन्हें थाइरोइड की शिकायत  थी. जब अनिल मुझे बेहाला की गलियों में घुमाने ले गया तो उसने बताया की ज्यादा शराब पीने की वजह उसकी पत्नी का ठंडापन है. यही नहीं , उसने मुझे अपने गर्ल फ्रेंड से भी भेंट कराया जिससे नजदीकी रखने के लिए ही उसने बेहाला चुना.
उसकी बंगाली गर्ल फ्रेंड लड़का ज्यादा लग रही थी. गाली उसके मुंह पर रहती थी. मेरा परिचय उसने पुलिसवाला कहकर किया जिससे वह अपशब्द कम बोले. उस लड़की के साथ एक-दो और लडकियां रहती थी. सभी लड़कियां पेशेवर लगती थीं। एक बहुत सुन्दर 5 साल का लड़का खेलते दिखा . बाहर आने पर अनिल ने बताया कि ये घर एक बंगाली महाशय का है जिसकी ये रखैल है. वह कभी-कभी ही इधर आता है.  दूसरी बार जब मैं अनिल के घर आया तब वह फिर मुझे लेकर उस लड़की के घर पहुंचा.पर इस बार बाहर से ही लौटना पड़ा. खुले दरवाज़े से बंगाली महाशय दिख रहे थे. बिलकुल अमृत्य सेन.
घर लौटकर, अनिल ने शराब कि बोतल निकाली और खूब पी. मुझे भी पीने की जिद करने लगा. रोने और आत्महत्या कि दुहाई देने लगा. अंत में,मेरी गोद में सर रखकर सो गया.
सुबह लौटते वक्त, उसने कहा कि अब वह कलकत्ता छोड़ देगा. वह अब बसंत के साथ पार्टनरशिप में काम करेगा. बसंत हम दोनों का दोस्त था पर अनिल से ज्यादा. वे दोनों रिश्ते में भी थे। बसंत अमेरिका में बस गया था. मुंबई में अपना कारोबार फैलाना चाहता था. जो दवाइयाँ अमेरिका में बैन हो जाती थी उसका बहुत अच्छा बाज़ार भारत में था..
अनिल से अंतिम मुलाक़ात 2000 में कारखाने के अंदर हुई. उस समय मैं आद्योगिक सुरक्षा और पर्यावरण प्रबंधन का चीफ बन गया था. अनिल ने मुझसे एक बहुत ही गलत काम में साथ देने को कहा. किसी बड़े काम में उसकी कंपनी सिम्प्लेक्स और एचईसी दोनों ने टेंडर भरे थे. अनिल एचईसी का बिड रेट जानना चाहता था.
उसके बाद अनिल 2001 में अपने बड़े भाई के पास चला गया. वे उस समय विशाखापट्नम स्टील प्लांट के चेयरमैन बन गए थे. वहाँ उसे किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में नौकरी मिल गयी थी. 2003 में मालूम पड़ा कि वह मुंबई में किसी फर्म में था.
2015 में , बसंत से मेरा संपर्क फेसबुक में हुआ.  whatsapp वॉइस काल पर उसने अनिल के बारे में जो बताया वह बहुत दुखदायी था।
शराब और जूएँ की लत के चलते उसकी नौकरी छूट गई। वह दादर,मुंबई में किसी माफिया डेन मे जूएँ का अड्डा चलाने लगा। एक दिन उसकी एक बड़ी चोरी पकड़ी गई। अनिल किसी तरह तो भाग गया पर उसके जान पर हरदम खतरा मँडराता रहता था। वह पटना आकर अपनी ससुराल में रहने लग गया । उसकी आदत उसे खस्ताहाल बनाए रखती थी। अपने पटना प्रवास के दौरान बसंत उससे मिलना चाहता था। लोगों ने उसे मना कर दिया। 

सुनील:1953


October,2007 में एक दिन अजय भैया का पटना एअरपोर्ट से फोन आया. वे किसी से मेरी बात कराना चाहते थे. दूसरी तरफ से आवाज़ आई,” क्या प्रकाश ! पहचान रहे हो ? “ मैंने तपाक से जवाब दिया,” क्या सुनील ? दूसरे तरफ से आवाज़ आने में समय लगा,” My Goodness ! तुमने पहचान लिया ? मैं आज रांची आकर सबसे पहले तुमसे मिलूँगा.” सचमुच, 50 वर्षों बाद किसी कि आवाज़ तुरंत पहचान लेना किसी के लिए भी आश्चर्य का विषय हो सकता है. मेरे लिए नहीं क्योंकि मैं सुनील के साथ घटी कुछ मजेदार घटनाएँ अपने दोस्तों और साथियों को सुनाता रहता था. और हाँ , बीच में अजय भैया ने बताया था कि सुनील ने भी स्टेट बैंक ज्वाइन किया है. शायद यही कारण रहा होगा मेरी यादाश्त की मजबूती का.
बचपन में और शायद हर समय लोग ऐसे लोगों की तलाश में रहते है जो उनके पलों में रंग भर दे. आखिर कौन मुस्कुराते हुए जीना नहीं चाहता .
आज आप जिसे किंडर गार्टेन और प्रीपरेटरी क्लासेस कहते है वैसी ही एक गणेश पाठशाला में मेरे दादा ने मेरा एडमिशन पहली कक्षा में करा दिया. सन 1953 में मैं 6 वर्ष का था. एक मंजिला स्कूल, तीन तरफ क्लास रूम्स, बड़ा सा आंगन , आँगन के अंत में शेडेड लंच एरिया और उसके कोने पर टॉयलेट. क्लासेस का दरवाजा आँगन की ओर खुलता था
सात वर्ष अच्छी उम्र होती है. साथ में उस पाठशाला में लड़कियां भी पढ़ती थीं. सुनील मेरी कक्षा में था और उसका घर स्कूल से एक किलोमीटर दूर जबकि मेरा रास्ते में पड़ता था. इसलिए लौटते वक्त तो आधी दूर तक रोज का साथ रहता था.
एक दिन कक्षा में सुनील अचानक उठा और बड़ी शालीनता से टॉयलेट जाने कि इजाजत मांगी. जब टॉयलेट जाने की शुरुआत होती तो नंबर लग जाया करता था. इसलिए टीचर ने हिदायत दी कि तीन से ज्यादा को इज़ाज़त नहीं मिलेगी. सुनील उठा और बीच आँगन में खडा होकर एक-एक कपड़े उतरने लगा. ऐसा पहले कभी नही हुआ था. बच्चे टॉयलेट में जाकर कपड़े उतारते थे. चरमोत्कर्ष तो तब हुआ जब उसने अपनी निकर भी उतार दी. पूरे नंग-धड़ंग होकर आँगन को तिरछे पार करता हुआ , रास्ते में नल से मग भरता हुआ टॉयलेट में घुस गया. पूरे स्कूल में सन्नाटा सा छा गया. तकरीबन 5 मिनटों बाद सुनील बीच आँगन में लौटा और बिना किसी हिचकिचाहट के कपड़े पहन कर क्लास में आ गया. हम सभी स्तब्ध होकर ये नज़ारा देख रहे थे. और लड़किया ! 6-7 साल की लड़कियों से आप क्या अपेक्षा रखते है? हाय की मिली-जुली आवाज़, खिलखिलाहट और नज़र नीची.
पलक झपकते ही आधे क्लास के बच्चों का हाथ  ऊपर उठ गया. एक और लड़के को इज़ाज़त मिली. पर ये क्या ? तबतक, आँगन 10-12 बच्चों से भर गया था. सभी बीच आंगन में कपड़े उतार रहे थे. किसी तरह, एक मास्टर ने होशियारी दिखाई और सब बच्चों को डांटकर क्लास में भेज दिया.
तो ऐसे थे हमारे सुनील जी. पर हम भी किसी से कम नहीं थे. मेरे दादा के श्राद्ध के समय खूब मिठाई बनी थी. ये मेरे लिए एक नया पर सुखद अनुभव था. 23 जनवरी 1954 का दिन रहा होगा. तब की दोस्ती में हम दोस्त रूखा-सूखा, अच्छा सब मिल-बाँट के खाते थे. मैंने अपने कोट की जेब मिठाईयों से भर ली. टिफिन टाइम में सुनील को मज़ा आ गया. उसके पूछने पर मैंने बताया कि मेरे दादा को अंतिम विदाई दी जा रही थी.
कोई एक साल भी नहीं बीते होंगे कि सुनील के दादा की भी मृत्यु हो गयी. तीन दिन बाद जब सुनील स्कूल आया तब पता चला. मैंने उससे पूछ ही लिया कि अब तो उसकी घर भी मिठाई बनेगी ! और जब बनी तो उसने मुझे बड़े प्यार से आमंत्रित किया.
दसवी कक्षा में सुनील दूसरे सेक्शन में बैठता था. मेरी सेक्शन में केमिस्ट्री का कम्बायिंड क्लास करने आता जिसका जिक्र करना आवश्यक है. क्लास बी एन कॉलेज में डिमोंस्टरेटर रह चुके श्री गणेश प्रसाद लेते थे. क्लास में १०० लड़कों के बैठने का इंतजाम था , गैलेरिनुमा लकड़ी की सीढ़ियों वाला. सुनील शायद जानबूझ के सब लड़कों के बैठ जाने और लेक्चर शुरू होने के बाद एंट्री लेता था. दूर से उसके नाल लगे जूते की आवाज़ आने लगती. पूरी बुलंद आवाज़ में वह “May I come in Sir ? बोलता और बिना इज़ाज़त का इंतज़ार किये पीछे की बेंच पर लकड़ी की सीढ़ी पर पूरी जोर से खटखटाता हुआ ऊपर जाता. जाहिर है शिक्षक का पूरा रिदम टूट जाता. उसे डांटते- डांटते आखिरकार शिक्षक भी थक से गए और वे उसकी जूतों की टाप सुनते ही पढाई बंद कर देते.जब सुनील बैठ जाता तभी पढाई पुनः शुरू होती. सुनील पीछे बैठा-बैठा भी पढाई में विघ्न डालता रहता. इसलिए उसके लिए गणेश सर ने सामने की सीट रिजर्व कर दी. पर वहाँ भी चैन कहाँ. कभी ब्लैक-बोर्ड चमकने लगता; कभी कोई पीछे से उसे चाख मार देता और कभी उसके पेन की स्याही खत्म होजाती और वह सबसे पीछे की बेंच पर बैठे लड़के से पेन मांगने जाता . उसी तरह, घोड़े के टाप जैसे आवाज़ के साथ.. अंत में, तंग आकर उसे क्लास में आने से मना कर दिया गया. इसके बाद क्लास में विघ्न डालने का ज़िम्मा शत्रुघ्न सिन्हा ने सम्हाला.
कभी १९६२-६३ में अजय भैया ने और पाठक ने भी मुझे बताया कि पटना से सुनील नाम का लड़का एनसीसी सिग्नल के कैंप में आया हुआ था जो “टूटे हुए ख़्वाबों ने“ गाना बहुत अच्छा गाता था.
सुनील आया. बहुत अच्छा लगा. उसके कुछ महीने बाद, दिसम्बर 2007 में अजय भैया के बड़े लड़के अपूर्व का मेरेज रिसेप्शन था. सुनील से मुलाक़ात हुई। जब मिले तो ज्यादा बातें नहीं हो पायी। रात बहुत हो चुकी थी, देर  होने लगी थी। 
हाँ ! देर तो हो ही गयी थी. 50 वर्षों के अंतराल में कोडिॅनेट॒स  में कई बार  कितनी तरह का बदलाव आ जाता है. जिंदगी के पल अगर एक खींची हुई डोर पर अवलंबित रहती तो डोर के संकुचित होने की आशा रहती. मालूम नहीं, वैज्ञानिक स्ट्रिंग परिकल्पना को अमली जामा ज़ल्दी क्यों नहीं पहना रहे ?